“माँ, क्या बताऊँ! जब से पापा जी रिटायर हुए हैं, मानो उनकी दुनिया ही बदल गई है। दोनों दिनभर बगीचे में झूले पर बैठे रहते हैं, जैसे कोई फिल्मी जोड़ा हो! उम्र का भी कोई लिहाज नहीं, और न ही हमारे सामने संकोच!” सोनल ने फोन पर अपनी माँ से शिकायत की।
“अच्छा, अभी बात करती हूँ बाद में… लगता है सासू माँ आ रही हैं।” कहकर उसने फोन रख दिया।
सासू माँ ने सब सुन लिया था।
पर बिना कुछ कहे, उन्होंने धीरे से चाय का कप सोनल की ओर बढ़ा दिया और अपने पति अशोक जी के लिए भी चाय ले जाने लगीं। यह देखकर सोनल के चेहरे पर व्यंग्यपूर्ण मुस्कान उभर आई।
पति की रिटायरमेंट के बाद प्रभा जी की दुनिया अब सिर्फ उनका घर और उनके पति तक ही सिमट गई थी।
पहले जो जीवन भागदौड़ में बीता, अब उसमें ठहराव आ गया था। अशोक जी और प्रभा जी ने अपने जीवन के सुनहरे वर्षों को बच्चों के लिए समर्पित कर दिया था, लेकिन अब वे अपने साथ बिताए जाने वाले पलों का आनंद लेना चाहते थे।
उनका बगीचा, जो उनकी मेहनत और सपनों का प्रतिबिंब था, अब उनकी शांति का सबसे प्रिय स्थान बन गया था। हरसिंगार की खुशबू, गुलाब की महक और ताज़ी सब्जियों से महकता उनका छोटा-सा बाग, मानो उनकी तपस्या का फल था।
“याद है प्रभा, मैंने कहा था न, जब मैं रिटायर हो जाऊँगा, तो हम दोनों यहीं झूले पर बैठकर दिन बिताया करेंगे?” अशोक जी मुस्कुराते हुए बोले।
प्रभा जी भी हल्के से मुस्कुराईं, लेकिन उनकी बहू को यह मंजूर नहीं था।
“नवीन, हमें एक बड़ी कार ले लेनी चाहिए।” सोनल ने एक दिन कहा।
“पर जगह कहाँ है?” नवीन ने सवाल किया।
“गार्डन की क्या जरूरत है? वहाँ गैराज बना सकते हैं। वैसे भी माँ पापा दिनभर वहीं बैठे रहते हैं, जैसे कि उनकी कोई और दुनिया ही न हो!”
नवीन ने उसे झिड़क दिया, लेकिन फिर भी सोनल ने उसे अपने माता-पिता से बात करने के लिए मना ही लिया।
शाम को नवीन अपने पिता के पास पहुँचा, “पापा, हम एक बड़ी गाड़ी लेना चाहते हैं।”
“पर बेटा, उसे रखेंगे कहाँ?” अशोक जी ने सहजता से पूछा।
“बगीचे में। वहाँ गैराज बना सकते हैं। वैसे भी माँ अब कितने दिन तक इसे सँभालेंगी?”
यह सुनकर प्रभा जी को गहरा आघात पहुँचा। वह कुर्सी पकड़कर बैठ गईं।
अशोक जी ने स्थिति को संभालते हुए कहा, “मुझे और तुम्हारी माँ को सोचने का समय दो।”
लेकिन नवीन और सोनल के ताने जारी थे, “इस उम्र में ऐसे झूले पर बैठने का क्या तुक? क्या जरूरत है दिनभर साथ बिताने की? चार लोग क्या कहेंगे?”
अशोक जी पूरी रात सोचते रहे।
सुबह वे बड़े शांत थे। उन्होंने खुद चाय बनाई और एक कप प्रभा जी को दिया।
“आप क्या सोच रहे हैं?” प्रभा जी ने हल्की आवाज़ में पूछा।
“सब ठीक कर दूँगा। बस थोड़ा धीरज रखो।” अशोक जी ने मुस्कुराते हुए कहा।
शाम होते ही घर के बाहर एक ‘To Let’ का बोर्ड लग चुका था।
नवीन ने देखा, तो हड़बड़ाकर पूछा, “पापा, यह क्या है?”
“गुप्ता जी रिटायर हो रहे हैं, वे यहाँ रहेंगे।”
“पर कहाँ?”
“तुम्हारे हिस्से में।” अशोक जी ने शांत स्वर में उत्तर दिया।
“तो हम लोग?” नवीन हकला गया।
“तुम्हें इस लायक बना दिया है कि अपना घर खुद देख सको।”
“पर पापा…”
“बेटा, तुमने हमें सिखाया कि व्यवहारिक (practical) बनना चाहिए। जब तुम लोग साथ बैठ सकते हो, तो हम क्यों नहीं? हमारी ज़िंदगी भी सिर्फ एक ही बार मिली है, और हम इसे अपने हिसाब से जीना चाहते हैं।”
नवीन का सिर झुक गया।
अशोक जी ने आगे कहा, “यह घर तुम्हारी माँ का सपना था। ये पेड़ सिर्फ हरियाली नहीं, हमारे संघर्ष की निशानी हैं। और यह झूला सिर्फ एक झूला नहीं, हमारी जीवन संगिनी के साथ बिताए जाने वाले सुकून भरे पलों की सौगात है। इसे छीनने का अधिकार किसी को भी नहीं दूँगा।”
सोनल और नवीन को समझ आ चुका था कि माँ-बाप सिर्फ जिम्मेदारी नहीं, बल्कि जीवन का आधार होते हैं।
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